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विषयी बनाम नैतिक शिक्षा

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सर्वप्रथम यह अवगत करना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि इस लेख में विषयी शिक्षा का अभिप्राय स्कूलों में दी जा रही विभिन्न विषयों (हिंदी,अंग्रेजी, गणित, पर्यावरण, विज्ञान(भौतिक,जीव,रसायन),कंप्यूटर ,कला आदि))से है।

परन्तु आज क्या सिर्फ इन्ही की जानकारी से छात्र जीवन में आगे बढ़ जाएगा?? यदि आपको लगता है हां!! बस इन्हीं विषयों की अच्छी जानकारी पर्याप्त है तो आपके सोच समझ का दायरा संकीर्ण है। वस्तुतः इन विषयों की जानकारी से बच्चा कार तो खरीदने लायक बन सकता गई परंतु संस्कार नहीं। जो कि आज समाज में घटते जा रहे हैं। कार से अधिक महत्वपूर्ण संस्कार हैं। परंतु खेद का विषय है कि सभी भौतिकतावादी हो चले हैं। अतः कार या संस्कार में कौन सा ज्यादा आवश्यक है यह उनको अपने जीवन के उत्तरार्ध में समझ आता है जब कर्मशक्ति क्षीण हो चलती है और सब अपने (जिनको अभी तक अच्छे विषयी ज्ञान दिलवाने हेतु आतुर थे) दूर हो जाते हैं, लेकिन अब पछताए क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत। अतः नैतिक शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता है परंतु टीस तब होती है जब आज की शिक्षा व्यवस्था, शिक्षण संस्थानों, शिक्षण पद्यति को बारीकी से देखा जाए।। बच्चे को परीक्षा में कम अंक आने पर कम और बड़ों का उचित आदर ना करने पर ज्यादा पछतावा होना चाहिए।। परन्तु बच्चे क्या बड़ों को देखिए आज उल्टा हो रहा है यह चिंतनीय है। समाज के प्रबुद्ध वर्ग को इस विषय के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए तथा व्यापक सामाजिक पहल करनी चाहिए, शिक्षण संस्थान सरकारी हो या प्राइवेट सिर्फ विषयी शिक्षा पर जोर है, नैतिक शिक्षा तो सिर्फ एक विषय या यूं कहें विषयों की संख्या बढ़ाने के लिए रखा जा रहा है इससे कहीं ना कहीं एक भारतीय अभिभावक के मन में शिक्षण संस्थान के प्रति आस्था ज्यादा बढ़ जाती है। परंतु हो इसके उलट रहा है। प्राइवेट शिक्षण संस्थान धनोपार्जन में लगे हैं और इससे इतर सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षक अनेकों कार्यों (यथा- विभिन्न लक्ष्य प्राप्ति, कायाकल्प, न्यून छात्र उपस्थिति, आधार फीडिंग, DBT, MDM आदि) में उलझ कर भी काफी हद तक नैतिक शिक्षा देने का प्रयास करते हैं तथापि उनकी अपनी सीमाएं हैं। हालांकि इस लेख में बात सिर्फ प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की हो रही है। नैतिक मूल्यों की प्राप्ति प्राथमिक स्तर पर ही ज्यादा द्रुत गति से होती है उसके उपरांत नैतिक शिक्षा प्राप्ति की गति मंद होने लगती है।

यह विषय समाज,अभिभावकों, सरकारों, नीति निर्माताओं के लिए विचारणीय है। सभी को गंभीरता से विचार की आवश्यकता है और एक जन आंदोलन के तहत नैतिक शिक्षा को लाना चाहिए।

जितना जोर विज्ञान, गणित आदि को दिया जा रहा है उससे अधिक जोर नैतिक शिक्षा को देना चाहिए।

अभिषेक सिंह

चिंता चिता एक समाना

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लिखने एवं देखने में चिंता और चिता में एक बिंदु मात्र का फर्क है !! जब इस धरा पर मौजूद हर वस्तु एवं व्यक्ति का समय पूर्व निर्धारित है तो एक बिंदु मात्र की क्या बिसात !! आज की भौतिकता बाहुल्य दुनिया में हर कोई भौतिक वस्तु , सुविधा पाने की जद में पड़ा हुआ है यह बिना सोचे कि क्या यदि वह वस्तु या सुविधा प्राप्त हो जायेगी तो मानसिक शांति मिल जाएगी ?? हर कोई सोचता है हाँ और हर किसी के सोचने का एक अपना नजरिया भी है उस द्रष्टिकोण से यह सही जान पड़ता है लेकिन समस्या तब खड़ी हो जाती है जब परिवार, समाज, नैतिक मूल्यों की बलि देकर भौतिक संसाधन, रुतबा, सुविधा पाने की होड़ लगे | यकीनन हर किसी को अपना निर्णय सही लगता है| यहाँ पर आवश्यकता आती है चिंतन की | याद रखिये “चिंतन अच्छा है परन्तु चिंता बुरी |” सबकी अपनी अपनी समस्याएं है धन प्राप्ति के लिए अंधी भाग दौड़ मची हुई है लोग रात में देर से सोते हैं और सुबह अलार्म लगा कर उठते हैं अलार्म लगाने और बजने को छोड़ दिया जाये तो बाकी पूरा समय सिर्फ सिर्फ धन प्राप्ति के लिए समर्पित | कर्म करना बुरा नहीं है लेकिन किसी व्यक्ति (वास्तविक या फिल्म का काल्पनिक किरदार ) के जीवन शैली की नक़ल करके उसकी प्राप्ति हेतु परिवार, नैतिक मूल्यों को ताक पर रख कर कर्म करना कतई स्वीकार्य नहीं है | यहाँ दस बीस मिनट चिंतन , ध्यान को देना आवश्यक है | हो सकता सोशल मीडिया पर किसी की जीवन शैली आपसे अलग हो यहाँ याद रखने योग्य बात यह है कि दूर के ढोल सुहावने लगते हैं | याद रखिये या लिख कर रख लीजिये जो आपको सोशल मीडिया पर या फिल्मों में दिख रहा है वैसा वास्तविकता में है कतई नहीं | परिवार की बात चली है तो चलिए संयुक्त परिवारों कि घटी संख्या पर भी एक निगाह डालते हैं | देश में मात्र 16 प्रतिशत संयुक्त परिवार बचे हैं और ये संख्या दिन ब दिन कम होती जा रही है | कारण सिर्फ एक आवश्यकता से अधिक पाने की लालसा !! यह वाकई चिंताजनक है कि हमारा देश भारत जो कभी संयुक्त परिवारों के कारण संस्कारों में शीर्ष पर था आज संस्कारों का पतन हो रहा है जिसका प्रमुख कारण यही है | आधे भारतीय आज तनाव में जीते हैं जिनमें से 26 प्रतिशत अपने मौजूदा काम/नौकरी के कारण और 17 प्रतिशत आर्थिक जिम्मेदारियों के कारण और 14 प्रतिशत पारिवारिक कारणों से चिंतित रहते है या यूँ कहें तनाव में रहते हैं | अगर काम/नौकरी सिर्फ पैसे के लिए कर रहे हैं तो कुछ तनाव रहेगा ही; इससे निजात पाने का सिर्फ एक ही तरीका है काम को जिम्मेदारी मानकर मन से किया जाये जिम्मेदारी का मतलब जो भी काम कर रहे हैं उसे अपना मानकर किया जाये तब उस काम में आनंद आएगा अन्यथा थोडा भी काम बोझा बन जायेगा |

सबसे जरूरी बात यहाँ यह है कि अपने ऑफिस का काम और घर का काम अलग -अलग रखिये | अगर घर पर ऑफिस या ऑफिस पर घर का काम करेंगे तो हालिया शोधों के अनुसार ना चाहते हुए भी मोनोविज्ञान के अनुसार से तनाव होगा ।

एक और प्रमुख कारण है कि आज लोग दिखावे की दुनिया में जी रहे हैं। जो कहीं ज्यादा खतरनाक है। कभी भीड़ में नजर घुमाइए लगभग हर इंसान अपने मोबाइल फोन पर व्हाट्सएप्प, फेसबुक या और किसी ऐसे ही दिखावे की दुनिया में जी रहे होंगे। अभी तक दिमाग को आफिस और घर-परिवार तक ही रखना था अब तीसरा ये मोबाइल फोन आ गया । इन सबमें अगर मस्तिष्क सामन्जस्य बैठा पाया तो अति उत्तम अन्यथा तनाव(चिंता) निश्चित है। इसे बहुत सरलता से चिंतन व ध्यान से रोक जा सकता है।

Beware technology is trying to suppress humanity!!

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Today we are living in the era of smart phones and stupid people. No doubt it is correct technology and many of their out comes make life of human very easy. Like today if some is far away from us then by use of technology we can be in touch all the time . But point here is whether technology make us his slave??. humans made many smart things and technical products for his convenience now things are changed 360 degree. initially people gave more importance to technology and now we are completely depend up on technology. there are many examples of that many times we can’t withdraw cash because Bank or ATM’s server is not working properly. sometimes I fear what if ICU machine of a hospital will fail!! Its really very pathetic to be completely depend on technical things. Is it not possible to do all your work manually and rely for somethings on technology . PERHAPS NOT. Although depending on technology is not a bad habit, We had saw its great advantages in CORONA pandemic and LOCKDOWN era, Still its my personal opinion to depend less on technology and start towards non machine work. We had already saw when in 2020 CORONA pandemic started then those who live in villages have faced few problems in comparison to those who live in cities and those who live in metro cities and so called hi-fi class and spending a luxurious life style faced most problems. Those who are completely living in villages spend most of there time on farms and do lots of physical workout compare to those who live in cities as a result their immunity power is very much in compare to those who spend luxury life style. Again during LOCKDOWN nature showed its beauty which we suppressed . We cant say pandemic has gone completely NO if we give more priority to technology and luxury then we are putting Life of future generations in danger. So taking some morals from this COVID 19 pandemic and LOCKDOWN start more and more physical work out and I am not saying To completely change your life style. slowly put yourself in uncomfortable zone. Say for example if you are living 24*7 power supply area then try to live without power supply for just 15-20 minutes in 24 hours. As far as I know no person living in village took any immunity booster like people of cities took during the pandemic. Boosting your immunity is not a permanent solution rather we have to SWITH ourselves FROM MACHINE MODE TO HUMAN MODE.

संतोष परम् सुखम

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आज लोग अपने दुख से कम बल्कि दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी हैं। इसका सिर्फ और सिर्फ एक ही कारण है संतोष की कमी और दूसरे से बराबरी करने की चाहत। अपने आसपास देखिए लगभग हर दूसरा आदमी परेशान है, यूं तो हर आदमी परेशान है लेकिन कुछ ऐसे भी है जो बनावटी दिखाते हैं कि वो बहुत मस्त हैं ,याद रखिए अगर किसी से भी खुद की तुलना करोगे तो दुखी रहोगे इसीलिए आत्मसंतोष सभी दुखों का समाधान है। 

अभिषेक सिंह